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धर्मवीर देशप्रेमी संत रविदास

ravidas maharaj punyatithi

संत रविदास (ravidas maharaj) 15 वीं शताब्दी के एक महान संत, दार्शनिक, कवि और समाज सुधारक थे। वह रामानंद सम्प्र्दाय के अनुयायी तथा कबीर के गुरु भाई थे। उनका नाम निर्गुण भक्ति धारा के सबसे प्रसिद्ध और प्रमुख संत में लिया जाता है।

-पंजाब में उनका नाम संत रविदास है तो उत्तर प्रदेश -मध्यप्रदेश व् राजस्थान में उनको रैदास पुकारा जाता है जबकि महाराष्ट्र में रोहिदास एवं बंगाल में रुईदास -रायदास -रेमदास -रेदास और रौदास के नाम से भी जाना जाता है।

-उनका सबसे बड़ा योगदान है कि बाबर और उसके बहुत निकटस्थ सदना पीर की कोशिशों के बाद भी उन्होने हिंदुत्व छोड़कर इस्लाम नहीं स्वीकारा – एक तरफ जहां सदना पीर को टका-सा जवाब दिया वहीँ मुग़ल शासन के संस्थापक बाबर को फटकार भी लगायी।

-उन के ४० शब्द श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। उनकी रचना ईश्वर, गुरू, ब्रह्मांड और प्रकृति के साथ प्रेम का संदेश देती हुई मानव की भलाई पर ज़ोर देती है

-समाज को जात-पाँत, भेदभाव, निरक्षरता, पाखंड, स्त्रियों की दुर्दशा, अंधविश्वास और कुरीतियों से मुक्ति दिलाने के लिए गुरु रविदास ने कई यात्राएँ कीं

सदना पीर की कोशिशों के बाद भी हिंदुत्व छोड़कर इस्लाम नहीं स्वीकारने और बाबर को फटकारते हुए “‘हरि का हीरा छाँड़ के,करें आन की आस, ते नर जमपुर जाहिंगे सत भाषैं रविदास “

पद गानेवाले रविदास या रैदास उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन के अग्रणी कवि थे। अपने भक्तों,अनुयायियों,समुदाय और समाज के लोगों को स्वरचित दोहों के द्वारा आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिये हैं और सबको एकजुट होने का मंत्र देते हुए कहा -:

जाति जाति में जाति है जो केतन के पात
रैदास मनुज न जुड़ सके जबतक जाति न जात।

उनके ४० शब्द श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। उनकी रचना ईश्वर, गुरू, ब्रह्मांड और प्रकृति के साथ प्रेम का संदेश देती हुई मानवता की भलाई पर ज़ोर देती है। संत रैदास की वाणी’ में 87 पद तथा 3 साखियों का संकलन ‘रैदास’ के नाम से हुआ है, जिनमें से लगभग सभी में ‘रैदास’ नाम की छाप भी मिलती है। ‘रैदासजी की वाणी’ में पद तथा साखियों का किंचित पाठभेद के साथ गुरुग्रंथ साहिब में संकलित रचनाओं से लगभग पूर्ण साम्य है।

भक्त पचीसी ” के लेखक खेमदास ने रैदास को ‘रयदास’ लिखा है। संत रैदास का मूल नाम ‘रविदास’ ही था, जो कि उच्चारण-भेद से रैदास भी हो गया। अन्य सभी नाम विभिन क्षेत्रों में उच्चारण भेद अथवा अन्य भावों के आरोप से बनते रहे। पंजाब में वे रविदास हैं तो उत्तरप्रदेश -मध्यप्रदेश -राजस्थान में रैदास। यही नहीं महाराष्ट्र में उनको रोहिदास पुकारा जाता है तो बंगाल में रुईदास -रायदास -रेमदास -रेदास -रैदास भी कहा गया है।

ग्रंथ साहिब में रविदास नाम से एक श्लोक तथा चालीस पद संकलित हैं। इस रचनाकार के विषय में काशी का निवासी तथा जाति से चमार होने का वर्णन मिलता है, किंतु साथ ही ग्रंथ साहिब में ही अन्य स्थलों पर ऐसे भी पद मिलते हैं; जिनमें काशी के निवासी चमार रैदास का प्रसंग मिलता है। ‘रैदास रामायण’ के मुखपृष्ठ पर ‘रहदास रामायण’ लिखा मिलता है, किंतु अंदर ‘रयदास रामायण’ लिखा है। अत: इन दो नामों में भी अंतर नहीं किया जाना चाहिए और इन्हें एक ही व्यक्ति रविदास के भिन्‍न नाम समझना चाहिए। मीरा ने अनेक स्थलों पर गुरु के रूप में ‘रैदास’ नाम से ही उनका स्मरण किया है। संत तुकाराम, रानाडे तथा विनोबा भावे के मतानुसार भी संत रैदास को ही लोग रोहीदास कहते हैं।इन सभी नामों के विभिन्‍न परिवर्तित रूपों को देखने से इतना तो निश्चित हो ही जाता है कि संत रविदास का प्रसिद्धि क्षेत्र अवश्य ही बहुत विस्तृत रहा है और वे संपूर्ण भारत में मान्य संत रहे हैं।

गुरु रविदास के जीवन को पूर्णतः प्रकाश में लाने के लिए यद्यपि हमें न तो पूर्णरूपेण अंतःसाक्ष्य ही उपलब्ध होते हैं और न कोई ऐसे निर्णायक बहि:साक्ष्य प्रमाण ही आधिकारिक रूप से उपलब्ध होते हैं, जिनके आधार पर गुरु रविदास के जीवन-वृत्त को पूर्णरूपेण प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया जा सके, किंतु फिर भी जो भी अंतःसाक्ष्य और कुछ बहि:साक्ष्य प्रमाण अब तक उपलब्ध हो सके हैं, उनका वैज्ञानिक विश्लेषण करने पर हम रविदास के जीवन से संबंधित कुछ तथ्यों की जानकारी अवश्य उपलब्ध कर सकते हैं। गुरु रविदास ने अन्य संत एवं भक्त कवियों की ही भाँति अपने विषय में विशेष कुछ परिचय नहीं दिया है, बस उनके द्वारा रचे गए कतिपय पदों के द्वारा हमें केवल उनकी जाति, कुल, परिवार, निवास स्थान, प्रारंभिक काल में अपमानपूर्ण जीवन, परवर्ती जीवन में सम्मान एवं जीवनयापन की विधि की जानकारी ही मिलती है।

गुरु रविदास के द्वारा लिखे गए कतिपय पदों में कुछ महान्‌ संतों एवं भक्तों का भी प्रसंग आया है, जिससे गुरु रविदास के जीवनकाल के विषय में भी कुछ तथ्य सामने आ सकते हैं। जिन महान्‌ संतों का उल्लेख रविदास ने इतने सम्मानपूर्वक किया है या तो वे गुरु रविदास के जीवनकाल में ही उनसे अधिक सम्मानित और प्रसिद्ध हो चुके थे या स्वर्गवासी हो चुके थे अर्थात्‌ रविदास से पहले जन्म ले चुके थे। कुछ संतों ने भी रविदास का नाम बड़े सम्मानपूर्वक लिया है। उपर्युक्त सिद्धांत के अनुसार इस विषय में भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उन संतों के काल में रविदास पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुके थे या स्वर्गवासी हो चुके थे अर्थात्‌ वे गुरु रविदास से आयु में कनिष्ठ रहे होंगे।

कुछ परवर्ती धार्मिक साहित्य तथा अन्य धर्माचार्यों ने भी रविदास के जीवन पर प्रकाश डाला है। कतिपय आधुनिक विद्वानों ने भी रविदास के जीवन के विषय में कुछ खोजें की हैं। संपूर्ण बहि:साक्ष्य सामग्री को हम निम्नलिखित श्रेणियों में बाँट सकते हैं–

(क) समकालीन अथवा तथाकथित समकालीन संतों एवं विचारों की रचना में रविदास से संबंधित आए हुए प्रसंग।
(ख) धार्मिक साहित्य।
(ग) परिचयी साहित्य तथा भक्तमाल।
(घ) अनुश्रुतियाँ तथा किंवदंतियाँ।
(ग) परवर्ती विद्वानों के विचार।

(क) इस सूची में प्रमुखत: दो ही संत-भक्त आ सकते हैं। एक तो धन्ना भगत तथा दूसरी मीरा। यद्यपि यह विवादास्पद है कि मीरा गुरु रविदास की समकालीन थीं, किंतु एक बहुत बड़ी संख्या में विद्वान्‌ मीरा को रविदास का समकालीन मानते हैं। साथ ही विद्वान धन्ना भगत को भी रविदास का समकालीन बताते हैं, रविदास को धन्ना भगत का समकालीन बतानेवालों की संख्या अधिक है। अन्य बहि:साक्ष्य प्रमाणों की तुलना में इन दो संतों की रचनाओं को, इस विषय में हम अधिक प्रामाणिक आधार मानकर चल सकते हैं। धन्ना भगत ने गुरु रविदास का नाम बड़े सम्मानपूर्वक लिया है और उनको नामदेव, सैन नाई व कबीर साहब के ही समकक्ष माना है। मीराबाई ने भी रविदास का नाम बड़े सम्मान से अपने गुरु के रूप में लिया है।

() जहाँ तक धार्मिक साहित्य का प्रश्न है, उसे दो आधारों पर विभाजित किया जा सकता है। प्रथम आधार तो उपलब्ध साहित्य की प्राचीनता या रविदास से समकालीनता है और द्वितीय आधार रविदासी संप्रदाय से संबद्धता या उससे इतरता है। प्रथम कोटि के साहित्य में यद्यपि यह बात कह सकना तो कठिन है कि कौन सा साहित्य कितना प्राचीन अथवा समकालीन है, वरन्‌ संभावना यही अधिक है कि यह साहित्य बाद में ही रविदास के जीवन पर आरोपित दृष्टिकोणों के प्रकाश में लिखा गया है। इस कोटि में पाँच पुस्तकें उपलब्ध होती हैं; जो रविदास की समकालीन और पुरानी होने का दावा करती हैं। ये पाँच पुस्तकें हैं–‘रैदास रामायण’, ‘कबीर-रैदास संवाद’, ‘काशी माहात्म्य’, ‘भविष्य पुराण’ और ‘रैदास पुराण’।

इनमें ‘रैदास रामायण’ रविदासी संप्रदाय के ही भक्त बख्शीदास की रची हुई है। ‘कबीर-रैदास संवाद’ श्रीसैनी का लिखा हुआ है। सैनी कबीर पंथी थे। दोनों पुस्तकों में ही रचनाकारों ने अपने-अपने संप्रदाय के प्रवर्तकों को अधिक विद्वान तथा प्रभावशाली सिद्ध करने की चेष्टा की है, फिर भी इन पूर्वाग्रहों को यदि निकाल दिया जाए तो भी संत रविदास के जीवन-वृत्त तथा उनकी विचारधारा की इन पुस्तकों से कुछ-न-कुछ जानकारी अवश्य मिलती है। ‘रैदास पुराण’ भी परवर्ती रचना ज्ञात होती है, किंतु उसका उपयोग भी कुछ सीमा तक किया जा सकता है। भविष्य पुराण तथा काशी माहात्म्य अवश्य परंपरागत ब्राह्मण धर्म की पुस्तकें हैं, किंतु उनसे भी हमें कुछ तथ्यों की उपलब्धि होती है तथा उनसे कुछ तथ्यों की पुष्टि होती है। आधुनिक कालीन रचनाओं में हीरालाल कुरील द्वारा ‘भगवान्‌ रैदास की सत्य कथा’ तथा रामदास शास्त्रपाठी की लिखी हुई ‘श्री भगवान्‌ रैदास का सत्य स्वभाव’ है। इन रचनाओं में भी संप्रदाय जैसा पूर्वाग्रह तथा अतिरंजनाएँ अधिक मिलती हैं, किंतु इनसे भी रविदास के जीवन से संबंधित तथ्यों पर कुछ प्रकाश पड़ता है।

() जहाँ तक परिचयी साहित्य का संबंध है, रविदास के जीवन से संबंधित परिचयी स्वामी अनंतदास ने लिखी है। इसमें रविदास के जीवन से संबंधित अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाओं का वर्णन किया गया है। संभव है कि इन अतिरंजनाओं का उद्देश्य तत्कालीन समाज में रविदास का महत्त्व बढ़ाना रहा हो, किंतु परिचयी साहित्य जब अन्य प्रमाणों की पुष्टि प्राप्त कर लेता है, तब उसके कुछ तथ्य अवश्य विश्वसनीय बन जाते हैं। ‘भक्‍तमाल’ (मूल रचना नाभादास, टीका प्रियादास) में भी रविदास के जीवन की कल्पित घटनाओं का चमत्कारपूर्ण ढंग से वर्णन किया गया है। उसमें भी कुछ अतिशयोक्तियाँ और सांप्रदायिक अतिरंजना ज्ञात होती है, किंतु उसमें वर्णित घटनाओं से परिचयी में वर्णित घटनाओं और जनश्रुतियों से प्राप्त घटनाओं का साम्य प्राय: एक सा बैठ जाता है।

() जनश्रुतियाँ तथा किंवदंतियाँ यद्यपि किसी भी कथा अथवा जीवनी का ऐतिहासिक आधार नहीं होतीं और उनमें अतिरंजना तथा जनमानस की भावनाओं का काल्पनिक आरोप अधिक होता है, किंतु सर्व प्रचलित किंवदंतियों को भी अगर विवेकपूर्ण रीति से निर्वाचित किया जाए तो हम कुछ तथ्यों पर पहुँच सकते हैं। गुरु रविदास से संबंधित जो किंवदंतियाँ तथा जनश्रुतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें स्थान भेद तथा पात्रभेद के अनुसार रविदास के व्यक्तित्व का अतिमूल्यन और अवमूल्यन दोनों ही करने की चेष्टा हुई, किंतु हम इस अतिमूल्यन- अवमूल्यन के आरोप को हटाकर कुछ तथ्य निकाल सकते हैं और यदि एक सी ही जनश्रुति सब स्थलों पर प्रचलित मिलती है, तो वह तुलनात्मक रूप से कुछ अधिक विश्वसनीय बन जाती है।

गुरु रविदास के जीवन से संबंधित प्रचलित जनश्रुतियों को हम तीन वर्गों में बाँट सकते हैं–

  1. प्रथम वे जनश्रुतियाँ हैं, जो उनके जन्मकाल के विषय में होनेवाली चमत्कारपूर्ण घटनाओं और उनके पूर्वजन्म से संबंध रखती हैं। इन सभी जनश्रुतियों में गुरु रविदास को चर्मकार के घर जन्म लेते हुए भी मूल रूप में उनका चमार न होना सिद्ध करने की चेष्टा की गई है। यहाँ बताना आवश्यक लगता है कि यह प्रयास जिसके अनुसार गुरु रविदास को मूल रूप से चमार न होना सिद्ध करने की चेष्टा की गई है, इसे अवांछनीय प्रयास या एक साजिश कहा जा सकता है।
  2. द्वितीय प्रकार में वे जनश्रुतियाँ हैं; जिनका संबंध गुरु रविदास के साधनापूर्ण जीवन और उसके परिणामस्वरूप उनके विभिन्‍न प्रकार से सम्मानित होने से है। इन जनश्रुतियों में अनेक स्थानों पर कर्मकांडी ब्राह्मणों तथा पाखंडियों पर जन मान्यता के अनुसार रविदास की विजय ही अधिक दिखाई गई है।
  3. तृतीय प्रकार की जनश्रुतियाँ रविदास के त्यागपूर्ण जीवन तथा उनके संत स्वभाव से संबंधित हैं। हो सकता है कि इन जनश्रुतियों में अतिरंजना या कल्पना की मात्रा अधिक हो, किंतु इन जनश्रुतियों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि तत्कालीन युग में गुरु रविदास एक महान्‌ त्यागी तथा निस्पृह संत माने जाते थे।

गुरु रविदास के जीवन तथा कृतित्व पर कतिपय विद्वानों ने आधुनिक काल में भी प्रकाश डाला है, जिनमें प्रमुख नाम इस प्रकार कहे जा सकते हैं–डॉ. रामकुमार वर्मा, पंडित परशुराम चतुर्वेदी, पंडित भुवनेश्वर मिश्र, रामानंद शास्त्री, डॉ.संगमलाल पांडेय, पद्मावती शबनम, प्रो. तारकनाथ अग्रवाल, वियोगी हरि, रामचंद्र कुरील, महंत सकलदास, महंत रामदासजी शास्त्रपाठी, कलियुगी रविदासजी, विलियम हेल्टिंगन और रैदास वाणी के संपादक।

रविदास का जीवनकाल तथा तिथि निर्णय

गुरु रविदास के जीवनकाल का निर्णय कर सकने के लिए हमें कोई अंतः साक्ष्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होते। कुछ बहि:साक्ष्य प्रमाण अवश्य उपलब्ध होते हैं, किंतु ये बहि:साक्ष्य भी हमें किसी अंतिम प्रामाणिकता पर नहीं पहुँचाते, इसलिए हम रविदास के जीवन के विषय में तुलना की दृष्टि से ही कुछ तथ्यों के आधार पर निर्णय लेकर उनके जीवनकाल को प्रकाश में ला सकते हैं। विभिन्‍न बहि:साक्ष्य प्रमाणों के आधार पर हम जिन धारणाओं पर पहुँच सकते हैं, प्रारंभिक रूप से वे निम्नलिखित कही जा सकती हैं–

(1) गुरु रविदास कबीर के समकालीन थे। इसी धारणा का एक पक्ष यह भी है कि वे रामानंद के शिष्य थे; तब हमें मानना पड़ेगा कि रामानंद उनके समय में जीवित थे।
(2) गुरु रविदास मीराबाई के गुरु थे अर्थात्‌ मीराबाई के समकालीन थे, चाहे वे उनसे आयु में कितने ही बड़े क्यों न रहे हों।
(3) गुरु रविदास धन्‍ना भगत के समकालीन होकर उनसे बहुत ही बड़े थे।

उपलब्ध अनुश्रुतियों के आधार पर मीरा के रैदास की शिष्या होने की संभावना अधिक दिखती है। बहि:साक्ष्य प्रमाण भी इसका समर्थन करते हैं। मीरा ने रविदास का गुरुभाव से अपने पदों में अनेक स्थलों पर स्मरण किया है और अब वे पद आधिकारिक रूप से मीरा के माने जा चुके हैं। इन पदों के प्रकाश में रविदास के मीरा का गुरु होने की संभावना उत्पन्न होती है। मीरा ने धन्ना भगत का भी नाम बड़े सम्मानपूर्वक लिया है। जैसे वे कोई एक बहुत ही सिद्ध अथवा पौराणिक महान पुरुष हों।

अब दूसरी संभावनाओं, रविदास का कबीर के समकालीन तथा रामानंद के शिष्य होने का प्रश्न उठता है। जहाँ तक रविदास का कबीर के समकालीन होने का प्रश्न है, वह बिलकुल संभव है। इस विषय में भक्‍तमालकार का छंद जिसमें उन्होंने कबीर, रविदास आदि सभी को रामानंद का शिष्य बताया है, रविदास की परिचयी, कबीर-रैदास संवाद तथा रैदास रामायण सभी का समर्थन मिलता है। विद्वानों ने कबीर का जन्मवर्ष सन्‌ 1455 माना है। यह संभव है कि कबीर अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर हों, तब रविदास की साधना प्रारंभिक अवस्था में हो। इसका समर्थन रविदास के ही पदों में मिली विभिन्‍न पंक्तियों से होता है। एक स्थल पर रविदास ने कबीर को सम्मानपूर्वक स्मरण करते हुए उनके सदेह स्वर्ग पधारने की भी बात कही है। इससे स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि रविदास कबीर से कनिष्ठ तथा आयु में छोटे थे और कबीर जब अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर रहे होंगे, तब रविदास का साधनाकाल चल रहा होगा।

‘काशी माहात्म्य’ नामक ग्रंथ में प्रसंग आता है कि उस स्थान पर शंकराचार्य ने एक शूद्र से शास्त्रार्थ किया था। यह शूद्र कौन था, इस विषय में वहाँ कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है, किंतु इस प्रसंग को ही जब हम एक दूसरे स्थल पर, भविष्य पुराण में उल्लिखित पाते हैं, तब इस प्रसंग के स्पष्टीकरण की ओर कुछ संकेत मिल जाता है। भविष्य पुराण के चतुर्थ खंड में प्रसंग आता है कि सूर्य के द्वितीय पुत्र पिंगलापति ने मानदास चर्मकार के यहाँ जन्म लिया, जिसका नाम रविदास रखा गया। रविदास ने काशी में कबीर से वाद-विवाद किया। उन्हें पराजित करने के बाद वे शंकराचार्य के पास आए। दोनों में एक दिन और एक रात लगातार शास्त्रार्थ होता रहा। अंत में रविदास पराजित हुए, पराजित होकर उन्होंने शंकराचार्य को प्रणाम किया और रामानंद के पास जाकर उनसे दीक्षा ली।

अब प्रश्न उठता है कि काशी में भी वह कौन सा स्थल था, गुरु रविदास जहाँ के निवासी थे। इस विषय में दो विचार सामने आते हैं, प्रथम तो काशी का गोपाल मंदिर तथा दूसरा बनारस कैंट के पास ही लगभग दो मील पश्चिम ग्रांड ट्रंक रोड पर स्थित ग्राम मांडूर, जिसका प्राचीन नाम महुआडीह बताया जाता है।काशी में स्थित गोपाल मंदिर को बड़े विश्वास के साथ रविदासजी का जन्मस्थल बताया जाता है। इस मंदिर के तहखाने में, जिसे तुलसी गुफा कहा जाता है, ‘गुरु रविदास के द्वारा प्रयोग में लाई जानेवाली वस्तुएँ’ भी सुरक्षित रखी बताई जाती हैं। भक्तों का कथन है कि यह मंदिर रविदासजी ने स्वयं बनवाया था। संभव है कि यह बात भी सत्य हो और रविदास का आश्रम या स्थान वहाँ रहा हो, किंतु रविदास का जन्म मांडूर ग्राम में होने के पक्ष में पर्याप्त प्रमाण मिलता है।’रैदास रामायण ‘ की उल्लिखित पंक्तियाँ जिनमें रैदास के काशी के निकट मांडूर में जन्म लेने का वर्णन मिलता है, पर्याप्त प्रामाणिक ज्ञात होती है। मांडूर में प्राचीनकाल में चर्मकारों की बहुत बड़ी बस्ती भी रही थी।

गुरु रविदास की जाति तथा कुटुंब

यह बात पूरी तरह सिद्ध हो चुकी है कि गुरु रविदास का जन्म चर्मकार परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने ही पदों में अनेक स्थानों पर अपने चर्मकार होने की बार-बार घोषणा की है। इस विषय में रविदास की परवर्ती प्रसिद्धि तथा सर्वप्रियता को देखते हुए उनकी जाति से संबंधित अनेक कथानक चल गए हैं।भक्तमाल में रविदास को पूर्वजन्म का ब्राह्मण गया है। उन के पूर्वजन्म में ब्राह्मण होने से संबंधित एक और कथा भक्‍तमाल में ही वर्णित की गई है। भक्तमाल के अनुसार, रानी झाली ने गुरु रविदास को ससम्मान बुलाया था और उनके आगमन में एक भोज दिया था। कर्मकांडी ब्राह्मणों ने रविदास के सम्मान में दिए जाने के कारण इस भंडारे में से भोजन ग्रहण करने से इनकार कर दिया था, इसीलिए झाली रानी ने उनको अलग से सीधा दिया। जिस समय ब्राह्मण वर्ग अपने हाथ से बनाया भोजन खाने अलग बैठा, उस समय उन्होंने हर ब्राह्मण के साथ पंक्ति में दोनों ओर रविदास को बैठे पाया। इस पर ब्राह्मण वर्ग बहुत लज्जित हुआ। उसने रविदास से आकर क्षमा माँगी, तब रविदास ने अपनी त्वचा चीरकर उसके नीचे सोने का जनेऊ दिखाकर पूर्वजन्म में अपने ब्राह्मण होने का परिचय दिया था।

अनंतदास ने भी रविदास को पूर्वजन्म में ब्राह्मण माना है। उनकी कथानुसार, रविदास ने पूर्वजन्म में ब्राह्मण होकर भी मांस खाया था। इसलिए इस जन्म में उनको चमार के घर जन्म लेना पड़ा। ‘रैदास रामायण ‘ में भी रैदास को ‘विपलग गोत्र अस सूर्य दासी’ कहकर द्विज ही सिद्ध करने की चेष्टा की गई है। भविष्य पुराण में रविदास को पूर्वजन्म का सूर्यवंशी कहा गया है। उसकी कथा इस प्रकार दी गई है– एक बार शनि, राहु तथा केतु का कोप शीत करने के लिए सूर्य ने अपने दो पुत्रों को इस पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए भेजा, एक पुत्र इड़ापति बसाई के घर जन्मा जिसका नाम बाद में सधना हुआ और दूसरा पुत्र मानदास चमार के घर जन्मा जो बाद में रैदास हुआ।

विचारणीय विषय है कि जिस पुरोहितवाद, थोथे कर्मकांड तथा वर्ण व्यवस्था के नाम पर सामाजिक अन्याय के विरुद्ध उसमें सुधार लाने के लिए संपूर्ण संत विचारधारा खड़ी हुई थी, जिस संत विचारधारा में व्यक्ति- लिंग-भेद से स्वतंत्र अनेक भक्त केवल अपनी भक्ति तथा साधना मात्र के बल पर महान्‌ सिद्ध पुरुष माने गए, उसी संत परंपरा के महान्‌ भक्त रविदास की सफलता के कारण उनके पूर्व जन्म के ब्राह्मण होने में खोजने की चेष्टा संपूर्ण आंदोलन की आत्मा को समाप्त करने का प्रयास तथा सामाजिक अन्याय को जीवित रखने की साजिश ही कही जा सकती है। स्मरणीय है कि संत कबीर के लिए भी एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होने की बात कही गई है। गुरु रविदास वस्तुत: एक चमार परिवार में ही जन्मे थे। विद्वानों ने भी उन्हें चमार मानकर, चमारों की एक उपजाति ‘चमकटैया’ में उत्पन्न हुआ बताया है। चमार जाति की यह उपशाखा आज भी उत्तर प्रदेश में पाई जाती है।

रविदास के माता-पिता तथा परिवार

रविदास के माता-पिता के नाम के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है, फिर भी जनश्रुतियों तथा सांप्रदायिक सूचनाओं के आधार पर उनके माता-पिता के विषय में कुछ जानकारी मिलती है।भविष्य पुराण में रविदास के पिता का नाम मानदास बताया गया है। गुजराती साहित्य में भी कहीं-कहीं रविदास के गुरु का नाम माणदास बताया गया है। रैदास पुराण में रैदास का जन्म अमैथुनी रूप में माता के हाथ के फफोले से माना गया है। रैदास पुराण में उनकी माता का नाम भगवती कहा गया है। रैदास रामायण में रैदास के पूर्वजों का दो पीढ़ी तक परिचय दिया गया है। रैदास के पिता तथा माता का नाम राहू और कर्मा माना गया है। राहू के पिता का नाम हरिनंद तथा माता का नाम चतरकोर माना गया है। ‘श्री रविदास भगवान्‌ का सत्य स्वभाव’ के लेखक ने रविदास के पिता का नाम सत्यानंद और माता का नाम संतकुमारी बताया है।

गुरु रविदास की पत्नी का नाम ‘लीणा’ या ‘लोना’ बताया जाता है, ब्रिग्स ने भी रविदास की पत्नी का नाम ‘लोना’ ही बताया है। रैदास रामायण में भी रैदास की पत्नी का नाम ‘लोना’ होने की पुष्टि मिलती है। लोना चमारों की चमकटैया उपजाति में उत्पन्न हुई थी। रविदास स्वयं भी चमार जाति की चमकटैया उपजाति में उत्पन्न हुए थे। इस तथ्य से भी इस बात की पुष्टि होती है कि रविदास की पत्नी का नाम लीणा या लोना ही था। चमार जाति में लोना देवी एक देवी मानी जाती हैं। स्त्रियाँ आज भी अपने बालकों की सुरक्षा की लोना से याचना करती हैं, बीमारी के समय उसके नाम की पूजा होती है तथा जादू-टोने, झाड़-फूँक आदि में उनके नाम के मंत्र मिलते हैं। कुछ लोगों के मतानुसार रविदासजी का एक पुत्र था जिसका नाम विजयदास था।

रविदास का बाल्यकाल और शिक्षा-दीक्षा

रविदास की प्रवृत्ति बचपन से ही संतों-भक्तों जैसी थी। कहा जाता है कि बालक रविदास ने बारह वर्ष की अवस्था में सीताराम की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसको पूजना आरंभ कर दिया था।शिक्षा-दीक्षा के क्षेत्र में तो संतों में अपवाद स्वरूप ही कदाचित्‌ किसी की कोई लौकिक शिक्षा हुई हो, अन्यथा सभी ने गुरु कृपा, सत्संग, पर्यटन तथा वातावरण एवं अंतः ज्ञान से ही सीखा था। गुरु रविदास की भी कोई विशेष शिक्षा नहीं हुई थी। उन्होंने स्वयं भी अपने मन को केवल हरि की ही पाठशाला में पढ़ने का संकेत दिया है।

चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पन्दरास।
दुख्रियों के कल्याण हित प्रकटे श्री रविदास ॥
–संत कर्मदास

भारत के प्रसिद्ध शहर बनारस के नजदीक माघ सुदी 15 पूर्णिमा संवत्‌ 1433 को पिता संतोष के घर और माता कलसी देवी की कोख से गाँव सीर गोवर्धनपुर में गुरु रविदास का जन्म हुआ, आपके दादा का नाम कालूराम जस्मल था और दादी का नाम लखपती था। गुरु रविदासजी का आगमन दुनिया के इतिहास में एक अलौकिक घटना थी, जिसका उद्देश्य जहाँ सदियों से जाति-भेद का शिकार हुई मानवता को मुक्ति प्रदान करना था, वहीं मानवता के विरोधियों को मानवता का पाठ पढ़ाकर समाज में एकता, समानता, आपसी मेलजोल और प्रभु के नाम का पवित्र उपदेश देना था। बालक रविदास अभी केवल पाँच वर्ष के ही थे कि उनकी माता कलसी देवी का देहांत हो गया। इस दुःख के कारण उनके पिता संतोषदासजी के मन को बहुत ठेस लगी।

रविदास की उदासियाँ/यात्राएँ

समाज को जात-पाँत, भेदभाव, निरक्षरता, पाखंड, स्त्रियों की दुर्दशा, अंधविश्वास और कुरीतियों से मुक्ति दिलाने के लिए गुरु रविदास ने कई यात्राएँ कीं। वे यात्राएँ इस प्रकार थीं–

उदासी–1

  1. रानीपुर, मालपी, माधोपुर, भागलपुर, नारायणगढ़, कालपी और नागपुर।
  2. बरहानपुर, बीजापुर एवं भोपाल।
  3. चंदेही, झाँसी, होड़, बूँदी तथा उदयपुर।
  4. जोधपुर, अजमेर और बंबई।
  5. अमरकोट, हैदराबाद, काठियावाड़ और बंबई।
  6. बंबई से कराची, जैसलमेर, जोधपुर तथा बहावलपुर।
    7, कालाबाग कोहाढ, दर्रा खैबर, जलालाबाद।
  7. जलालाबाद से काफरस्तान तथा फिर वहाँ से श्रीनगर।
  8. डलहौजी से गोरखपुर (नाथों के साथ वार्त्तालाप) फिर काशीपुर।

उदासी-2
काशीपुर से गोरखपुर और फिर वहाँ से प्रतापगढ़, शाहजहानपुर और तत्पश्चात्‌ वे हिमालय पर्वत पर चले गए। उन्होंने अपनी सारी संगत को वापस लौटा दिया तथा आदेश किया कि उनका पुत्र उनकी अनुपस्थिति में गुरुदीक्षा देगा तथा वे स्वयं काफी समय के बाद वापस लौटेंगे।

इन यात्राओं के दौरान गुरु रविदास ने बहुत से क्रांतिकारी परिवर्तन किए। उनके चरणों में गिरकर बहुत से पापियों ने अपने दुष्कर्मों से मुक्ति प्राप्त की।गुरु रविदास ने भारतवर्ष में मानवता का मार्गदर्शन करने के लिए कई वर्षों तक यात्राएँ कीं, परंतु छुआछूत का बोलबाला होने के कारण उनके सभी स्मृति चिह्न मिटा दिए गए।

उदासी-3
अरब देशों की यात्रा के दौरान गुरु रविदास ने विभिन्‍न धर्मगुरुओं के साथ वार्त्तलाप किया और अनगिनत लोगों को उपदेश प्रदान किया। गु रु रविदास की वाणी में प्रयुक्त विभिन्‍न स्थानों के नाम एवं विवरण से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने दूर-दूर तक यात्राएँ कीं। उनकी रचना ‘बेगमपुरा सहर को नाउ’ में अंकित, ‘आबादान’ शब्द पर विचार करें तो उनकी अरब देशों की यात्रा के संकेत मिलते हैं।

संत रविदास सबसे बड़ा योगदान है कि बाबर और उसके बहुत निकटस्थ सदना पीर की कोशिशों के बाद भी उन्होने हिंदुत्व छोड़कर इस्लाम नहीं स्वीकारा जबकि आज बात -बात पर विधर्मी संगठनों की शह पर कुछ लोग हिंदुत्व छोड़ देते हैं या फिर धर्म परिवर्तन की धौंस देते हैं। ऐसे लोगों को संत रविदास से शिक्षा लेनी चाहिए जिन्होने एक तरफ जहां सदना पीर को टका-सा जवाब दिया वहीँ मुग़ल शासन के संस्थापक बाबर को फटकार भी लगायी।

सदना पीर को उन्होने कहा -“‘हरि का हीरा छाँड़ के,करें आन की आस,ते नर जमपुर जाहिंगे सत भाषैं रविदास “।
जब बाबर ने उनको प्रणाम करके आशीर्वाद माँगा तो इस स्वाभिमानी संत ने भारी मारकाट मचानेवाले मुगल शासक को फटकारते हुए कहा – ” चंद सूर नहीं राति दिवस नहीं, धरनि अकास न भाई।करम अकरम नहीं सुभ असुभ नहीं, का कहि देहु बड़ाई ” वह इतने पर ही नहीं रुके , उन्होने कहा – “कोई सुमार न देखौं, ए सब ऊपिली चोभा। कौं जेता प्रकासै, ताकौं तेती ही सोभा।।हम ही पै सीखि सीखि, हम हीं सूँ मांडै।थोरै ही इतराइ चालै, पातिसाही छाडै।।अति हीं आतुर बहै, काचा हीं तोरै। कुंडै जलि एैसै, न हींयां डरै खोरै।।

रैदास की ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था। संत कुलभूषण कवि रविदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया। उन्होंने सबको परस्पर मिल जुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है।

संत कवि रैदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग है, जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। उनका सच्चे ज्ञान पर विश्वास था। उन्होंने भक्ति के लिए परम वैराग्य को अनिवार्य माना था। उनके अनुसार ईश्वर एक है और वह जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में मौजूद है। इसी विचारधारा के अनुसार, उन्होनें अपने प्रथम पद “अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी” में हमें यह शिक्षा दी है कि हमें ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं मिलेंगे या किसी मूर्ति में नहीं मिलेंगे। ईश्वर को प्राप्त करने का एक मात्र उपाय अपने मन के भीतर झाँकना है। कवि ने यहाँ प्रकृति एवं जीवों के विभिन्न रूपों का उपयोग करके यह कहा है कि भक्त और भगवान एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। उनके अनुसार ईश्वर सर्वश्रेष्ठ हैं और हर जन्म में वे ही सर्वश्रेष्ठ रहेंगे।

अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा॥

अपने दूसरे पद “ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।” में रैदास जी ने ईश्वर की महत्ता का वर्णन किया है। उनके अनुसार ईश्वर धनी-गरीब, छुआ-छूत आदि में विश्वास नहीं करते और वे सभी का उद्धार करते हैं। वे चाहें तो नीच को भी महान बना सकते हैं। ईश्वर ने नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना और सैनु जैसे संतों का उद्धार किया था और वे हमारा भी उद्धार करेंगे। इस तरह, उन्होंने हमें उस समय के समाज में व्याप्त जात-पाँत, छुआ-छूत जैसे अंधविश्वासों का त्याग करने की सलाह दी है।

ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै।।
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै॥
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥

रैदास की वाणी, भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उनकी शिक्षाओं का श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक याद करते हैं।

सन्दर्भ :

-‘रैदास रामायण ‘: भक्त बख्शी दास
-भगवान रैदास की सत्यकथा : हीरालाल कुरील
-गुरु ग्रन्थ साहब : अर्जुन सिंह
-भक्त पचीसी : खेमदास
-रैदास की वाणी
-संत सुधा सार : सम्पादक वियोगी हरि
-कबीर -रैदास संवाद : श्री सैनी
-भविष्य पुराण
-रैदास पुराण
-काशी माहात्म्य
-श्री भगवान रैदास का सत्य स्वभाव :रामदास शास्त्रपाठी
-रामदास परिचयी साहित्य : स्वामी अनंत दास
-भक्तमाल : लेखक नाभा दास, टीका प्रिया दास
-बेगमपुरा सहर को नाउ’ : गुरु रविदास
-भगवान रैदास की सत्यकथा

रविदास के जीवन तथा कृतित्व पर प्रमुख विद्वानों ने आधुनिक काल में भी प्रकाश डाला है, उनके नाम इस प्रकार कहे जा सकते हैं–डॉ. रामकुमार वर्मा, पंडित परशुराम चतुर्वेदी, पंडित भुवनेश्वर मिश्र, रामानंद शास्त्री, डॉ.संगमलाल पांडेय, पद्मावती शबनम, प्रो. तारकनाथ अग्रवाल, वियोगी हरि, रामचंद्र कुरील, महंत सकलदास, महंत रामदासजी शास्त्रपाठी, कलियुगी रविदासजी, विलि

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