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‘चरण नारायण विक्रम संवत 1053’

सन 1873 में जब एलेक्जेंडर कनिंघम जेठौर आए तब उन्होंने यहां एकमात्र मंदिर के समीप यह चरण चिह्न देखा था। इस चरण चिह्न पर एक शिलालेख था। इसमें ‘चरण नारायण विक्रम संवत 1053’ अंकित था। विक्रम संवत 1053 का आंग्ल स्वरूप 996 इस्वी है।

कनिंघम लिखता है कि यहां एक पहाड़ी के समीप मंदिर है जो चांदन नदी के पश्चिमी तट पर निर्मित है।

सन 1895 की एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार यह इकलौता शिव मंदिर था जिसकी देखरेख ब्राह्मण पुजारी के पास था। खड़हरा के ज़मींदार बाबू नंदलाल चौधरी के क्षेत्र में यह था। इस जगह से पूरब और खड़हरा स्टेट से मध्य की भूमि में एक जमींदारी तेजनारायण बनैली और उनके अन्य फरीक़ों (Stakeholders) की भी थी।

कहा गया है कि भगवान विष्णु का यह चरण चिह्न यहां से कुछ दूरी पर पश्चिम में अवस्थित परवाना सरोवर के सूखने के उपरांत कुछ लोगों को मछली मारने के क्रम में मिला था। संभवतः यह वर्ष 1840 से 1845 के बीच का था। संभवतः बिन बख्तियार खिलजी या अफ़गानों के आक्रमण के भय से इस पवित्र पादचिह्न को सरोवर में डाल दिया गया होगा।

अब इस जगह पर एक विस्तृत मंदिर बन गया है। इसके समीप नदी के बीच में पूर्व दिशा की ओर कर्णकीचितास्थली के रूप में एक मंदिर भी निर्मित कर दिया गया। पश्चिम दिशा में पर्वत उपत्यकाओं में भद्रकालीकामंदिर भी बना दिया गया है। इस मंदिर और प्रतिमा का निर्माण मेजर बिरसा उरांव नामक एक संथाल ने कराया जो रांची के थे।

इस मंदिर में नाथ सम्प्रदाय के कई योगियों की समाधि है। इसी जगह सन 1813 में चंदन के कुछ वृक्ष समाधियों के पास विलियम फ्रेंकलिन ने भी देखे थे। यहां अलग-अलग चंदन के कुछ पेड़ नदी के किनारे समाधियों के आसपास अंग्रेज़ सर्वेयरों द्वारा देखे जाने की जानकारी मिलती है। अनुमान है कि इसी कारण से इस नदी को ‘चंदन नदी’ कहा गया।

वस्तुतः जेठौर ‘ज्येष्ठ गौर’ का अपभ्रंश है। शिव को देवाधिदेव माना गया है। उन्हें ‘ज्येष्ठ’ भी कहे जाने की परंपरा रही है। पूर्व में यह क्षेत्र ‘गौर’ या गौड़ के अधीन था। अतः महादेव की इस प्रतिष्ठा को ज्येष्ठगौड़ नाम दिया गया। संभवतः ऐसा राजा शशांक के समय हुआ। पाटलिपुत्र से जब वे राजधानी उठाकर गौड़ जा रहे थे तब वे यहां रुके फिर कुछ समय मंदार में रुके। बाद में उन्होंने अपनी राजधानी कर्णसुवर्ण (मुर्शिदाबाद) को बनाया। कर्णसुवर्ण से पहले गौड़ (मालदा जिला) में रुके।

शशांक शिव के उपासक थे। यह शिवलिंग उनके द्वारा प्रथम स्थापित हो अतएव ‘ज्येष्ठ गौड़’ का नाम दिया गया हो; ऐसा भी संभव है।

शशांक के बाद यह जगह दशनामी सम्प्रदाय के नाथों के अधीन आ गया और यह जगह ‘ज्येष्ठगौर नाथ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। नाथों के काल से इसका नियंत्रण जह्नुगिरी (सुल्तानगंज) से होने की जानकारी मिलती है । बाबा ज्येष्ठगौर नाथ बिहार राज्य के भागलपुर प्रमंडल के बाँका जिले में अवस्थित है।

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