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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 11

विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 11 (11-30)

रसायन विज्ञानं और अम्ल एवं क्षार

अम्ल

आज अम्लों का रंजकों, विस्फोटकों, धात्विक लवणों, परिरक्षी रसायनों, सुरुचिकर पदार्थों एवं औषधियों आदि के निर्माण में उपयोग होता है। सल्फ्यूरिक अम्ल के उत्पादन की मात्रा, उस देश के रसायन उद्योग की शक्ति की सूचक मानी जाती है ।

अम्ल नाम की उत्पत्ति इसके खट्टे स्वाद में निहित है । अम्लों का पारे व अन्य धातुओं एवं खनिजों के शोधन, विलयन व हनन (यौगिकों में रूपातंरण) आदि प्रक्रियाओं में उपयोग होता था ।

प्राचीन भारतीय विभिन्न फलों और पत्तों से कार्बनिक अम्लों की निष्कर्षण पद्धति से परिचित थे परंतु उन्हें इनकी अलग अलग पहचान नहीं थी । नींबू आदि सिट्रस फलों से सिट्रिक अम्ल, उदस्य पुष्प के ऊर्ध्वपातन (sublimation) से टार्टेरिक अम्ल, आक्जैलिक अम्ल, टैनिक अम्ल व बैन्जोइक अम्ल शिलारस से सिनामिक अम्ल, किण्वित अन्न से एसिटिक अम्ल, दही से लैक्टिक अम्ल, गौमूत्र से हिप्यूरिक अम्ल और समय के साथ हिप्यूरिक अम्ल के विघटन से प्राप्त बैंजोइक अम्ल आदि के संबंध में उन्हें जानकारी थी।

द्रावक अम्लों अथवा विलायक अम्लों का पता कुछ समय बाद लगा । पुराने संस्कृत व तमिल साहित्य में सल्फ्यूरिक अम्ल (दाहजल), नाइट्रिक अम्ल व हाइड्रोक्लोरिक अम्ल बनाने के संकेत मिलते हैं । ‘रुद्रायमाल’ नामक ग्रंथ में ‘ताम्रदाह जलैर्योोंगे जायते तुत्थकं शुभं वाक्य में कापर सल्फेट बनाने का वर्णन मिलता है।

कास्टिक क्षार (NaOH, KOH)::

सुश्रुत ने क्षारों का उपयोग शल्य चिकित्सा में किया था। उसने इन्हें क्षार का नाम दिया क्योंकि इनसे क्षरण अर्थात ऊतक कोशिकाओं का विनाश होता है । उसने ढके हुये लौह पात्रों में इनके भंडारण की सिफारिश की है क्योंकि हवा में इनकी क्षमता कम हो जाती है ।

हमारी दैनिक उपयोग की बहुत सारी वस्तुओं के निर्माण में कास्टिक क्षारों का प्रयोग किया जाता है, जैसे कपड़ा, कागज, औषध, साबुन, अपमार्जक (डेटरजेंट) व प्लास्टिक आदि । आज समुद्री नमक से, इलेक्ट्रोरासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा, इनका लाखों टन की मात्रा में उत्पादन होता है ।

हमारे पूर्वज लकड़ी की राख, चूना पत्थर व समुद्री शैल से कास्टिक क्षार बनाते थे । उन्नीसवीं सदी के अंत तक, यह सबसे अधिक प्रभावशाली एवं वैज्ञानिक विधि थी । सुश्रुत संहिता (200ई.) में कास्टिक क्षारों को बनाने का वर्णन हैं । ‘जंगली वृक्षों की लकड़ी के लट्ठों को चूना पत्थर और समुद्री शैलों के साथ जलाया जाता है । तत्पश्चात् राख के पानी से प्राप्त सार और चूने के पानी का मिश्रण तैयार किया जाता है । इसके फिल्टरन से खारा घोल मिलता है । फिल्ट्रेट के विभिन्न सांद्रण द्वारा मृदु, मध्यम व तीव्र क्षार मिलता है।

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