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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान: भाग 26

विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 26 (26-30)

नौ परिवहन और भारतीय विज्ञान

।। शं नो वरुणः ॥

भारतीय नौसेना अध्यक्ष की मोहर पर ‘शं नो वरुणः आदर्श वाक्य, अंकित है। वरुण समुद्र के देवता है। इन शब्दों का सुझाम स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सी. राजगोपालाचारी ने दिया था। इसका अर्थ है कि समुद्र के देवता, वरुण, हम पर कृपा करें।

वैदिक काल में नोपरिवहन

ऋग्वेदकाल के भारतीयों को नोपरिवहन का अच्छा ज्ञान था। उनका समुद्र के देवता, वरुण में अगाध विश्वास था। वैदिक काल में जहाज, जहाज-निर्माण तथा नौचालन की अच्छी जानकारी थी।

ऋग्वेद में समुद्र सप्तसिंधु पूर्व समुद्र पश्चिम समुद्र आदि शब्दों का अत्यधिक उपयोग हुआ है। समुद्र का अर्थ है अथाह जल, सप्तसिंधु का अर्थ है- सात नदियाँ तथा शतारित्रा का अर्थ है 100 चप्पू वाली नाव । वेदों में, नौचालन से संबंधित कई तकनीकी शब्द मिलते है। युम्नु (Dyumn वेद 8-19.14) शायद, एक प्रकार की नाव थी। चप्पू को ‘अरित्रिण तथा नाविकों को नवजा’ कहा जाता था। आश्चर्य की बात है कि अधिक स्थिरता के लिये दोनों को जोड़ने का लाभ भी उन्हें ज्ञात था।

कोटिल्य के अर्थशास्त्र में जहाज का वर्णन

400 ई.पू. के कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जहाज के विभिन्न कर्मचारियों के उत्तरदायित्व का वर्णन है । जहाज का अधीक्षक “नाध्यक्ष कैप्टन “शासक, स्टीयरमैन “नियामक तथा धुंबकीय सुई रखने वाले को दाग्राहक कहा जाता था। जहाज के कमरों के बारे में भी रूचिकर जानकारी उपलब्ध है। मंदिर जहाज (जिनके वि आगे की ओर बने होते थे) का उपयोग सूखे मौसन, लंबी तथा युद्ध में किया जाता था। मध्यमंदिर जहाज (जिनके केबिन मध्य भाग में होते थे) वर्षा काल के लिये उपयुक्त थे । राजाओं के सैर-सपाटे के लिये बने जहाज इसी प्रकार के थे। ‘सर्वमंदिर जहाजों में आगे से पीछेतक और दोनों और बड़े केविन होते थे। इनका उपयोग सामान, घोड़ों, तथा राजसी खजाने की ढुलाई आदि में होता था।

जातक कथाओं में वर्णित समुद्री यात्रायें

जातक कथाओं के नाम से विख्यात बौद्ध साहित्य में, दूर देशों की कई समुद्री यात्राओं का वर्णन है। 500 ई. पू. से प्रारम्भ होकर लगभग 1000 वर्ष तक यह व्यापारिक यात्रायें जारी रहीं । वैदिक काल में जिस प्रकार यात्रा सुरक्षा के लिये वरुण की पूजा की जाती थी, उसी प्रकार इस काल में दीपांकर बुद्ध का आह्वान किया जाता था। अजंता की गुफा संख्या 17.19 व 36 में दीपांकर बुद्ध का चित्र है।

प्रोफेसर बहलर ने बवेश जातक के बवेस शब्द का संबंध बबीस अथवा बेबीलोन से जोड़ा है। इस कथा में पश्चिमी भारत के सौदागरों द्वारा फारस की खाड़ी की यात्राओं का वर्णन है। हमारे पश्चिमी तट के सुरपरक तथा भरूच आदि बंदरगाहों का वर्णन जातक कथाओं में आया है।

‘समुह वणिज जातक में एक ऐसे व्यापारी का वर्णन है जिसने अग्रिम पैसा लेने के बाद भी माल नहीं दिया। उसने चुपचाप एक जहाज का निर्माण किया और परिवार सहित गंगा के रास्ते से समुद्र में स्थित एक द्वीप पर जाकर रहने लगा।

‘महाजनक जातक में एक राजकुमार का कुछ व्यापरियों के चंपा से सुवर्णभूमि की यात्रा का वर्णन है। यह जहाज समुद्र में टूट गया था। सुवर्णभूमि संभवतः वर्मा को कहा गया था।

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