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हिन्दू संस्कृति का गौरव

नेपाल के मंदिर में दक्षिण भारतीय पुजारी और दक्षिण भारत के मंदिरों में नेपाली पुरोहित हिन्दू संस्कृति के गौरव का व्यावहारिक स्वरूप है – छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध पत्रकार पंकज कुमार झा ने तीर्थाटनों में यह पाया।

पंकज कुमार झा
संपादक कमल संदेश, रायपुर

नेपाल यात्रा की सबसे बड़ी प्राप्ति ये वयोवृद्ध महात्मन हैं। नाम त्यागराजन नायडू। जन्म श्रीलंका में। अब भारतीय नागरिक हैं, ऐसा गौरव के साथ बताया। निवासरत हैं वर्तमानतः नेपाल में। तमिल हैं…

मंदिर में प्रवेश करते ही साथ हो लिये। बताया उन्होंने कलेजा चौड़ा कर कि ‘सुदूर उत्तर के इस मंदिर में मुख्य पुजारी दक्षिण के मंगलौर के हैं, और उनके यहां दक्षिण में मुख्य पुजारी नेपाल से होते हैं।’ यह उनके मुख से सुन कर हम जैसों को अच्छा लगना ही था। आख़िरकार उत्तर-दक्षिण का यह सनातन समन्वय ही वह एकात्मता है, वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, जिसके लिए हम जैसों ने अपना जीवन समर्पित किया हुआ है। है न?

आगे सभी स्थानों पर ये महात्मन विधि-विधान से पूजा करा रहे थे। मार्गप्रदर्शक की स्वयंभू भूमिका में। मुख्य पूजा के बाद गणेश जी का दर्शन, फिर भैरव, कृष्ण, श्रीराम, हनुमान जी, आगे साढ़े पांच सौ लिंगों का एक ही स्थान पर दर्शन स्पर्श…. उसके आगे मंदिर के परकोटे से ही पुण्य बागमती नदी के तीरे विधि-विधान से अंतिम प्रयाण की तैयारी में लगे पवित्र शव तक का प्रत्यक्ष दर्शन कराने के बाद त्याग जी हमें बाहर तक छोड़ने आये।

बीच-बीच में स्वाभाविक रूप से हमारे मन में आशंका बलवती होती जा रही थी कि इन्हें न जाने कितनी राशि देना होगा हमें। वहां कार्ड आदि काम नहीं करने के कारण राशि भी सीमित ही बची थी। हमारे भीतर चल रहे इस द्वंद्व से अनजान त्याग जी पशुपतिनाथ का माहात्म्य बताये जा रहे थे, सनातन एकात्मता का, शव दर्शन करा कर जीवन की क्षण-भंगुरता का भी!

विदा लेते समय अंततः पूछना ही पड़ा कि कितने पैसे दे दें उन्हें? पूछते हुए लड़खड़ा भी रहा था कि पता नहीं कितना मांग लें। हालांकि मित्र का मत था कि अच्छी राशि ही देना चाहिए इन्हें। मैथिली में हमने विमर्श कर तय भी कर लिया था कि देंगे ठीक-ठाक इन्हें। विश्वास था कि शेष यात्रा में महादेव कर ही देंगे प्रबंध जैसा अभी तक करते आए हैं। अस्तु!

पूछते हुए अपनी-अपनी जेब में हाथ डाल कर बटुआ बाहर निकाल भी लिया था। त्याग जी ने हाथ पकड़ लिया, बोला कि उन्हें कोई भी राशि नहीं लेना है। तमिल मिश्रित हिन्दी में बताने लगे कि उन्हें अब पैसे की कोई आवश्यकता नहीं होती। पांच बार अमरनाथ यात्रा पर हो आए हैं। आपके दरभंगा-मधुबनी भी गया हूं। बैद्यनाथ, बासुकिनाथ से लेकर अपने रामेश्वरनाथ पर्यंत यात्रा उनका चलता रहता है।

ऐसे ही वे शिव मंदिर में श्रद्धालुओं की सहायता कर अपना जीवन सार्थक कर रहे हैं। बेटियों का विवाह आदि सम्पन्न हो गया है। सभी अपने-अपने घर-परिवार में सुख से हैं। त्याग जी भी सेवानिवृत्त जीवन का आनंद इस तरह उठाते हुए शेष जीवन को सुख और सार्थकता प्रदान कर रहे हैं। एक समय भोजन करते हैं, वह इन्हें प्राप्त हो ही जाता है।

सो, भोजन या अन्य कोई सेवा भी स्वीकार नहीं किया उन्होंने। श्रद्धा से हम दोनों के दोनों हाथ उनके चरणों में झुक गये थे। कहा भी मित्र ने कि पशुपतिनाथ ने हमारे पथ-प्रदर्शन को इन्हें विशेष कर पठाया है, ऐसा लग रहा…..

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