Opinion

नारी अस्तित्व के लिए संघर्ष – पाँचवी कड़ी

एक दिन मुझे इनसे कहा गया की, “आपको अकेले ही शिक्षा के लिए जाना पड़ेगा। उधर हमारे नौकरी का कुछ नहीं बन पा रहा है। ” और मैं अकेली जा रही हूँ यह सोचकर मुझे क्या लगा, यह बताना मुश्किल है। और भी, महिलाओं के लिए वैद्यकशिक्षा हिंदुस्तान में तो उपलब्ध नहीं थी। तब रेव. मि. गुहिन के मदद से मि. वाइल्डर से अमरीका में पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। पर उसमें भी रेवरंड मि. गुहिन का मैं वैद्यक शिक्षा लूँ इसके बजाय मैं ख्रिस्ती धर्मोपदेशक बनूँ यह सुप्त हेतु था।

नाम आनंदी पर….

“रे औरत, वह तुम्हें ईसाई बनाएगा। फिर पाँव खाना, स्टोकिष्ण्या पहनना और मुँह को काला पोतना।” मुझे तो लगता है की मेरा आधा जीवन यही सुनने में बीत गया होगा। बाटगी, धर्मबुडवी, वेसवा और भी कितने ही विशेषणों से मैं पहचानी जा चुकी थी। यह तो हुआ एतद्देशियों का अहेर। भारत का ईसाई समूह, और अमरीका के मिशनरी, मेरे वैद्यकीय महाविद्यालय के कुछ सहकारी, अध्यापक इन्हों ने भी गालियां देने में कुछ खामी नहीं छोड़ी। काली, नेटिव, निगर, बास्टर्ड, और बहुत कुछ। मैं रहूंगी भी दीपस्तम्भ, स्त्रीशिक्षा का मील का पत्थर, पहली भारतीय महिला डाक्टर और बहुत कुछ, पति का सनकीपन सम्हालनेवाली पत्नी, और क्या-क्या, मुझेही स्मरण नहीं हो रहा। मैं वास्तव में कौन हूँ ? मेरा अस्तित्व क्या है? यह प्रश्न मुझे बहुत बार हुआ, और यही प्रश्न उलझाने का मैं प्रयास करनेवाली हूँ ।

हाँ मैं हूँ डा. आनंदीबाई गोपालराव जोशी।
नाम आनंदी है पर, ….
सात समंदर पार अमरीका में, पाताल में जाकर डाक्टर हुई एक भारतीय, एक हिन्दू स्त्री, मान मराताबी मिली, पर वह जीवन के अंत में। जीते हुए, पल्लू में पड़ी निराशा, पति का प्रोत्साहन और अपेक्षाओं का बोझ।

१८ वी सदी के महाराष्ट्र के कल्याण के ब्राह्मण परिवार की मैं लड़की, नाम था यमुना। बाकि सब आनंद ही था। माँ – बाप को इसे हम कभी विदा करेंगे इसकी जल्दी हुई थी। दस साल की उम्र हो गयी तभी भी ब्याह नहीं हो रहा था। फिर इनका, याने की गोपालराव विनायकराव जोशी, रहने को संगमनेर का ठिकाना आया। सरकारी नौकरी और दहेज़ की अपेक्षा नहीं, और क्या चाहिए, पर कहते है की जरा सनकी है। पत्नी ने सीखना चाहिए, यह कौनसी जिद्द ? वैसी सुधारकी हरकतें नहीं चाहिए, ऐसी एक राय।

“रे औरत, वह तुम्हें ईसाई करेगा। क्या तक़दीर लेकर पैदा हुई है, किसको पता है?”

और हमारा ब्याह हुआ।

चि. सौ. कां. यमुना की सौ. आनंदीबाई गोपालराव जोशी हुई।
नाम तो आनंदी पर आनंदी कितना यह तो काल ही निश्चित करनेवाला था।

इनसे (गोपालराव से) सीखने का आग्रह और घर की बड़ी औरतों से उसे रहनेवाला विरोध। मायके में रहते हुए भी मैं ससुराल का अनुभव ले रही थी। फिर इनकी बदली अलीबाग को हुई। वहां पर तो सीखने के लिए ज्यादा ही आग्रह। अलीबाग में इनसे मुझे घर पे ही प्राथमिक शिक्षा दी गयी। मुझे लगा की अब हो गया, पर कहाँ?उनकी नजर भविष्य में नहीं, अपि तु, काल के आगे का सोच रही थी। मैंने पाठशाला जाना चाहिए और विद्या लेनी चाहिए ऐसा उन्हें लगता था। अपने पत्नी ने सीखना चाहिए, इग्लैंड जाना चाहिए, उनकी इच्छा थी।

अलीबागवालों ने तो हमें पूरा परेशां कर दिया था। जीना कठिन हो गया था। उसमें ही में गर्भवती हो गयी। शिक्षा, घर और समाज इस चरखे से मैं जा रही थी। मेरा प्रसव घर पर ही हुआ। लड़का हुआ। मुझे बहुत आनंद हुआ, पर यह आनंद अल्पकाल ही रहा। बुखार की वजह से हमारा बच्चा गया। पर्याप्त वैद्यकीय सुविधाओं के अभाव में ऐसा हुआ। यह ऐसा दुःख केवल मेरे अकेली के नसीब में नहीं था। प्रसव के दौरान ऐसा होता है कभीकभी। अनेकों औरते मरती है, अनेक बच्चे भी पैदा होते ही भगवान के घर जाते हैं। उसकी इच्छा।

इनकी बदली भी कोल्हापुर में हुई। बहुत से प्रयासों के बाद वहां की लड़कियों के पाठशाला में मेरा प्रवेश हुआ। मेरी अध्यापिका मिस मायासी के घोड़ागाड़ी से उनके पैरों के यहाँ बैठते हुए मुझे पाठशाला जाना पड़ता था। मेरे भारतीय रहते, वे गौरवर्णीय लड़कियां मुझसे असभ्य बर्ताव करती थी। कोल्हापुर के कारभारी लोगों के दबाव में आकर मिस मायासी का बर्ताव भी दिन प्रति दिन बदलता जा रहा था। एक तरफ भारतीय महिलाओंने सीखना चाहिए, स्वयं का विकास कर लेना चाहिए, ऐसा कहना और वस्तुतः उनसे अशिष्ट व्यवहार करना, ऐसा कोल्हापुर के मिशनरी वर्ग का दोहरा बर्ताव था।

मैंने अमरीका जाकर वैद्यक सीखना चाहिए, ऐसी इधरकी राय थी। हिंदुस्तान में स्त्रीशिक्षा संभव ही नहीं थी। इधरका पिछड़े विचारों का समाज कुछ करने देगा ऐसा नहीं लग रहा था। और महिलाओं के लिए वैद्यक शिक्षा हिंदुस्तान में तो उपलब्ध नहीं थी। तब, रेवरंड मि. गुहिन के मदद से मि. वाइल्डर से अमेरिका में पत्रव्यवहार शुरू हुआ। पर उसमें भी रेवरंड मि. गुहिन का मैं वैद्यक सीखूं इसके बजाय ख्रिस्ती धर्मोपदेशक बनूँ यह सुप्त हेतु था।

मैं जिस परिवार से आती थी, उस परिवार में धर्मान्तरण मृत्यु के बराबर था। में बहुत डर गयीं। मुझे स्मरण हुआ… वह तुम्हे ईसाई करेगा, तुम्हें मांस खाना पड़ेगा, तुम्हारा दूसरा ब्याह कर देगा। ….. इन विचारों से मैं मेरा सर जोर से पकड़कर बैठ गयीं।

मुझे तो यह लगने लगा की मेरा नाम बदलकर आनंदी क्यों रखा ?
कोल्हापुर में तो मेरे शिक्षा का कुछ हो नहीं रहा था। फिर इनका हमेशा का हि था कि, बदली करके लेना। अभी हम मुंबई आ गएँ। यहाँ में मिशनरी पाठशाला में जाने लगी पर अनुभव में कुछ बदलाव नहीं था, फिर हम बदली लेके भुज गएँ। अनजाना प्रदेश, अनजानी भाषा, और पाठशाला का अभाव, तो मेरी शिक्षा ये स्वयं लेने लगे।

हमारे भुज में रहते हुए एक चमत्कारिक घटना घटी। अमरीका के मिसेस कारपेंटर करके एक परोपकारी महिला ने दंतवैद्यक के यहाँ ‘ख्रिश्चन रिव्यू’ मासिक में मेरे वैद्यकविद्या सीखने के इच्छा के बारे में पढ़ा और मुझे भुज में एक पत्र भेजा। उसमें लिखा था, की, वे मेरे मदद के लिए तैयार है, उनकी लड़की ‘आमी’ को सपने में किसी को तो मैं (मिसेस कारपेंटर) हिंदुस्तान में किसी को खत भेज रहीं हूँ ऐसा दिखा, इत्यादि। मतलब इसके पीछे कुछ ईश्वरीय योजना रहेगी। फिर हमारे में पत्रव्यवहार शुरू हुआ। वे मुझे अमरीका की, मतलब मेरे हिसाब से पाताल की और में उन्हें भारत की कुल स्थिति और अन्य जानकारी देने लगी। में कारपेंटर मौसी को हिन्दू रीतियां बताने लगी।

हमारे दोनों के जीवनस्तर के बीच के अंतर को मैं जानने लग गयीं। एक खत में मैंने स्पष्ट लिखा की, “पश्चिमी लोगों का ऐसा समझ हो चूका है की, हिन्दूशास्त्र में ध्यान में लेने जैसी कोई चीज नहीं है, और इसीलिए उस शास्त्र में अत्युत्कृष्ट, बोधजनक और उपयोगी कितने ही वचन है, यह दर्शाने के लिए मैंने संस्कृत सीखना प्रारम्भ किया है। मैं वनस्पतिजन्य खाना खानेवाली हूँ, और खानापीना और पोशाक के सम्बन्ध में आपके जैसे बनने की मेरी इच्छा नहीं है। मैं कहीं भी जाऊँ तो मेरी रीतियाँ कायम रखूंगी। उससे अगर मेरे प्रकृति को उपाय होने लगा, तो फिर मेरे पास दूसरा रास्ता नहीं रहेगा। हमारे यहाँ लोग अपना धर्म अपने प्राणों से ज्यादा सम्हालते है। “

अबतक मुझे जितनी आवश्यक थी उतनी अंग्रेजी आने लग गयी थी। मैंने अभी नौकरी करनी चाहिए, ऐसी इनकी राय थी। कलकत्ता में महिलाओं को पोस्ट विभाग में लेनेवाले है, यह समझते ही, कलकत्ता में बदली होने के लिए हमारे प्रयास शुरू हुए। हम बंगाल प्रांत में आए। इतने दूर आना मुझे बहुत भारी पड रहा था। इधरका अनुभव तो और ही भीषण था। इनके नौकरी पर आया हुआ संकट, मेरी प्रकृति का बार बार बिगड़ना, इधर से उधर होनेवाली बदलियां, मेरे जीवन में कष्ट और दुःख को सीमा ही नहीं थी।

अब मुझे कार्पेन्टरमौसी से लगाव होने लगा गया था। एक खत में तो मैंने किसी को न बताई हुई बात मौसी को बड़े धैर्य से लिखी।

मैं सौभाग्यशाली हूँ, जो मुझे पाठशाला की शिक्षा मिली (उस समय लड़कियों के लिए मिशनरी पाठशालाएं थी, एतद्देशियों के लड़कियों के लिए ज्यादा पाठशालाएं नहीं थी)। इन मिशनरी महिलाओं का उत्साह और धैर्य देखते हुए, उनके प्रति प्रेम उत्पन्न होता है। परन्तु उनकी दूसरों के प्रति ध्यान न देने की मनोवृत्ति को देखकर तिरस्कार पैदा होता है। मुझे एक बार पाठशाला में बाइबल पढ़ने के लिए दिया, मेरे ना कहने पर मुझे पाठशाला से निकल देने की धमकी दी। फिर इनसे (मि. जोशी से) मुझे यह कहा गया की “बाइबल पढ़ने से हमारा क्या नुकसान होनेवाला है?” फिर मैं नियमित रूप से पाठशाला में बाइबल पढ़ने लगी। सारांश, बाइबल एक नीतिपर किताब है, मुझे उसके विरोध में कुछ नहीं बोलना है ; किन्तु उसमें एक वचन यह है की, ‘जिसका उसपर विश्वास है, उसे मुक्ति मिलेगी और जिसका विश्वास नहीं है, उसे अधोगति प्राप्त होगी।’ यह वचन मुझे पसंद नहीं आता। कुल में, मिशनरी लोग बहुत जिद्दी हैं, वैसे ही परधर्म का द्वेष करनेवाले भी है।

‘तुम सबका जो धर्म है, वह एकदम पागलपन है, और मैं जो करता हूँ, वह सच और अच्छा है। ‘, ऐसा अगर कोई कहने लगे, तो फिर वह कितना अन्याय होगा? मौसी, में सच में किसी धर्म का द्वेष नहीं करती, यह सब जगत अपने हित के लिए है और उससे हमने कुछ सीखना चाहिए। हर किसी जाती और पंथ को पूज्य मानना और उनके धर्म को मान देना, यह मेरा कर्तव्य है, इसलिए मेरी धार्मिक किताबें मैं जितने भक्ति से पढ़ती हूँ, उतनी ही भक्ति से बाइबल भी पढ़ती हूँ।

बड़े कठिनाई से मेरे अमरीका में वैद्यकशिक्षा के लिए जाने का पक्का हुआ। प्रश्न कुछ कम नहीं थे। सिर्फ नाम आनंदी होने का कोई मतलब नहीं था। बाहरी विद्या सीखने जाना मतलब कोई आम बात नहीं थी। उसके लिए स्वयं के पास काफी पैसा चाहिए। एक दिन मुझे इनसे कहा गया, की “आपको अकेले ही शिक्षा के लिए जाना है। वहां हमारे नौकरी का कुछ नहीं बन पा रहा है। ” और भी, मैं अकेली जा रही हूँ, यह सोचकर मुझे क्या लगा, यह कहना मुश्किल है। और ना भी कैसे कह सकती हूँ। उसमें भी सनातनियों ने जो त्रासदी मचाई, उसका वर्णन कैसे किया जाए?

और मैं ना भी कैसे कहती। उसमें ही सनातनियों ने जो त्रासदी मचाई, उसका वर्णन कैसे किया जाए? कल्याण से खत आने लगे। एक ब्राह्मण वधु अकेली अपने भ्रतार के बिना दूर अमरीका में जा रही है। समंदर पार करेगी, अभक्ष्य भक्षण करेगी, धरम रहेगा क्या? और अंत में मेरे परिचय का वाक्य, “यह औरत पक्का ईसाई बनेगी। “

फिर मैंने ही एक सभा में, मैं अमरीका क्यों जाउंगी इसपर भाषण दिया और मेरा पक्ष रखा। इससे बहुत बदलाव होने लगा। अभिनन्दन और प्रोत्साहन के सन्देश आने लगे। मेरा स्वदेशी चीजे इस्तेमाल करने की तरफ प्रयत्न रहने के कारण सामान की भी तयारी शुरू थी। साथ में कौन यह प्रश्न था। उसके लिए अख़बार में विज्ञापन दिया। पहले हाँ कहनेवाले डर्बन दाम्पत्य अंतिम क्षण पर न बोले। अनेकों प्रयासों के बाद अंत में मिसेस जान्सन की साथ मिली। कारपेंटर मौसी का सहकार्य तो था ही। वापस हिन्दुस्तान में आउंगी क्या? पती के चरण देखने मिलेंगे क्या? कल्याण – संगमनेर मुझे फिर से दिखेगा क्या?

अंत में, ८ अप्रैल १८८३ को १८साल की उम्र में मैं अकेली, सिटी ऑफ़ कलकत्ता इस आगबोट से ही अमरीका जाने निकली। सात समंदर पार…

आगबोट के बारे में क्या कहें? मेरी साथी मिसेस जानसन एक मिशनरी थी। वोह अमेरिकन और में हिन्दू। वह मुझे कभी प्रेम से, कभी डरते हुए, कभी डांटते हुए ईसाई बनाने का प्रयास करती। मुझे अक्कल डाढ़ें आ रही थी, तो मुझे बहुत परेशानी होने लगी। पर मेरी साथी को मेरी जरा भी दया नहीं आयी। पहले के मुस्लमान ठीक थे जो सरल तरीके से धर्म पर आक्रमण करते थे। पर ये लोग हम किसी के धर्मपर हाथ नहीं डालते ऐसा कहकर धर्मप्रसार करते है। व्यापार, या धर्मप्रसार, इनका तो बकध्यान ही है। बोट के यहाँ के अन्न और जल के बारे में मैं क्या कहूं? बहुत बार मुझे उपास होता था। मेरे सामने वे सब हड्डियां चबाते थे, मांस के टुकड़े तोड़ते थे। शिव… शिव… शिव… मिसेस जानसन ने कारपेंटर मौसी के प्रति भी बुरी बाते कही। मैं उसके हाथ के नीचे की दाई हूँ, ऐसा व्यवहार वह मुझसे करती थी। मुझे दाइयों के बीच में ही बिठाया जाता था। एक बात तो अच्छी थी की कम से कम दाइयां तो मुझे उनकी अपेक्षा नीच नहीं मानती थी। आगे जाकर मेरे प्रवासवर्णन ‘इंडिया मिरर’ नाम के पत्र में छापें गएँ।

मैं अंत में रीसेल को कारपेंटर मौसी के पास पहुंची। सब कारपेंटर कुटुंब ने मेरा स्वागत किया। में उनमें कब मिल-जल गयी, यह मुझे भी नहीं समझा। जल्द ही मैंने फिलाडेल्फिया के वैद्यक महाविद्यालय में प्रवेश लिया। मेरा हिन्दू रहना, काली रहना, निम्न स्तर से आना, उनके हिसाब से मेरा रहनेवाला विचित्र पोशाक इन कारणों से मुझे रहने के लिए कक्ष मिलना बहुत कठिन गया। वही बात खाने की। महाविद्यालय का स्वागत समारोह और मेरी सब व्यवस्था लगाकर मौसी जब रीसेल को वापस निकली, तब मुझे माँ कि विदाई क्या होती है, यह ध्यान में आया।

अब मेरा पता – पेंसिलवानिया – वुमेंस मेडिकल कॉलेज फिलाडेल्फिया ..

उसमें ही मुझे डिप्थेरिया नाम की बीमारी हुई। मैंने बिस्तर पकड़ा। खाने की असुविधा, बंदिस्त कक्ष और कमाल की ठण्ड। अब तो मुझे भेदभाव के बारे में कुछ न लगने लगा। काली, नेटिव, निगर, बास्टर्ड, ऐसे अनेकों विशेषणों से मेरा स्वागत हुआ। जगत में अच्छे और बुरे लोग तो रहेंगे ही। पर जो स्वयं को मानवता के दूत मानते है, उनसे किया गया भेदभाव अस्वस्थ कर देता है। कुल में, मेरी वैद्यकशिक्षाऔर वह मैंने कैसे पायी, कोनसे आपत्तियों का सामना किया, मुझे कैसे लोग मिले, यह सब एक ग्रन्थ का विषय हो सकता है।

मेरे पति के जिद्द से सुहृदों के सहकार्य से और परमेश्वर की कृपा से मैं डाक्टर हुई और वह भी आनंदीबाई यह नाम न बदलते हुए।

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