Opinion

हिन्दी पत्रकारिता के जनक श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर

श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर भारत के उन महान पत्रकारों में से थे, जिन्होंने पत्रकारिता को न केवल नयी दिशा दी, बल्कि उसका स्वरूप भी सँवारा। उनका जन्म 16 नवम्बर, 1883 को वाराणसी (उ.प्र.) में हुआ था। उन्होंने 1906 में पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया और जीवन के अन्तिम क्षण तक इसी में लगे रहे। इस क्षेत्र की सभी विधाओं के बारे में उनका अध्ययन और विश्लेषण बहुत गहरा था। इसी से इन्हें पत्रकारिता का भीष्म पितामह कहा जाता है।
उन्होंने बंगवासी, हितवार्ता, भारत मित्र, आज, कमला तथा संसार का सम्पादन कर देश, साहित्य और संस्कृति की बड़ी सेवा की।

वे महान क्रान्तिकारी भी थे। ब्रिटिश शासकों को खुली चुनौती देने वाले उनके लेख नये पत्रकारों तथा स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरणा देते थे। देश के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक नव जागरण में उनके लेखन का महत्वपूर्ण स्थान है।

उस समय समाचार जगत व्यापार नहीं था। लोग इसमें एक ध्येय लेकर आते थे। पत्र निकालने वाले भी उदात्त लक्ष्य से प्रेरित होते थे; पर पराड़कर जी ने दूरदृष्टि से देख लिया कि आगे चलकर इस क्षेत्र में धन की ही तूती बोलेगी। 1925 में वृन्दावन में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने जो भविष्यवाणी की थी, वह आज प्रत्यक्ष हो रही है।

बाबूराव जी ने कहा था कि स्वाधीनता के बाद समाचार पत्रों में विज्ञापन एवं पूँजी का प्रभाव बढ़ेगा। सम्पादकों की स्वतन्त्रता सीमित हो जाएगी और मालिकों का वर्चस्व बढ़ेगा। हिन्दी पत्रों में तो यह सर्वाधिक होगा। पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े धनिकों या संगठित व्यापारिक समूहों के लिए ही सम्भव होगा।

पत्र की विषय वस्तु की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे, आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता और कल्पनाशीलता होगी। गम्भीर गद्यांश की झलक और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब होगा; पर समाचार पत्र प्राणहीन होंगे।

समाचार पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त या मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी। इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क के समझे जायेंगे। सम्पादक की कुर्सी तक उनकी पहुँच भी न होगी।

बाबूराव विष्णु पराड़कर को भारत में आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता का जनक माना जाता है। पत्रकारिता के विभिन्न अंगों के संगठन एवं संचालन की उनकी प्रतिभा व क्षमता असाधारण थी।

वे कहते थे कि पत्रकारिता के दो ही मुख्य धर्म हैं। एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरा लोक शिक्षण के द्वारा उसे सही दिशा दिखाना। पत्रकार लोग सदाचार को प्रेरित कर कुरीतियों को दबाने का प्रयत्न करें।

पत्र बेचने के लिए अश्लील समाचारों और चित्रों को महत्व देकर, दुराचारी और अपराधी का आकर्षक वर्णन कर हम अपराधियों से भी बड़े अपराधी होंगे।

श्री पराड़कर ने जो कुछ भी कहा था, वह आज पूरी तरह सत्य हो रहा है। यों तो सभी भाषाओं के पत्रों के स्तर में गिरावट आयी है; पर हिन्दी जगत की दुर्दशा सर्वाधिक है। समाचार जगत में अनेक नये आयाम जुड़े हैं। दूरदर्शन और अन्तरजाल का महत्व बहुत बढ़ा है; पर इनमें से अधिकांश समाज में मलीनता, अश्लीलता और भ्रम फैलाने को ही अपना धर्म समझ रहे हैं।
दूरदर्शी एवं स्पष्टवादी इस यशस्वी पत्रकार का 12 जनवरी, 1955 को देहावसान हुआ।

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