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हिन्दू प्रतीकों की स्वीकार्यता बढ़ रही है पश्चिम में

दर्शन शाह अमेरिकी एयरफोर्स में काम करते हैं और नित्य तिलक लगाकर काम पर जाते हैं।’पहला गौरवशाली अमेरिकी-हिन्दू ‘ के रूप में सोशल मीडिया पर दर्शन छाये हुए हैं। दर्शन अकेले नहीं है जो विदेशों में हिन्दू प्रतीक चिन्हों जैसे तिलक,भभूति,सिंदूर,बिछिया, मंगलसूत्र आदि को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करते हुए अपने पेशे या रोजगारजन्य कर्तव्य को पूरा करते हैं।स्लॉघ (इंग्लैण्ड ) में रह रहे ग्लोबल हिन्दू फेडरेशन के संयोजक सतीश के शर्मा पिछले लगभग ३० वर्षों से भभूति का त्रिपुण्ड लगाकर लन्दन कोर्ट में बहस करते आ रहे हैं।इस्लेवर्थ कॉलेज में प्रोफ़ेसर जसवंत मैचा,सत्य मिन्हास,वर्टफोर्ड के जगदीश पटेल जैसे सैकड़ों भारतीय है जो अब पूजा के बाद माथे का तिलक मिटाकर अपने काम पर नहीं जाते।

बर्मिंघम में पिछले १३ वर्षों से रह रहीं पूजा सिंह ने बताया कि विदेशों में आये अधिकांश हिन्दू पेशेवर शिक्षा लेकर आए हैं न कि सामाजिक या धार्मिक शिक्षा लेकर। भारतीयों में अपने हिन्दू चिन्हों को लेकर पहले बहुत झिझक देखी जाती थी लेकिन बीते ७-८ वर्षों में परिस्थितियां बदल चुकी हैं। भारत के आई आई टी संस्थानों में संस्कृत शिक्षा को महत्त्व दिए जाने तथा मोदी -सरकार द्वारा योग एवं आयुर्वेद को बहुप्रचारित किये जाने के कारण विदेशों में हिन्दुओं के प्रतीक चिन्हों को लेकर जागरूकता बढ़ी है।लेकिन आज भी बहुत कम भारतीय हिन्दू हैं जो तिलक -त्रिपुण्ड लगाते हैं , यह भारतीय मूल के उन बच्चों की जिद है कि वे तिलक -त्रिपुण्ड लगाएं और अपने हॉस्टल के अपने कमरे में मंदिर भी बनाकर नित्य सुबह -शाम आरती और पूजा करें। उनको कोई इसलिए भी नहीं रोक सकता कि इस देश में जन्म होने के कारण उनके अधिकार यहाँ के मूल निवासियों के समान ही हैं।

लन्दन की एक आई टी कम्पनी के कंट्री हेड ने अपना नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर बताया कि फुटबॉल,रग्बी और कुश्ती जैसे खेलों को छोड़ दें तो बाकी खेलों में कंठी माला , तिलक , त्रिपुण्ड आदि लगाकर भारतीय मूल के खिलाड़ी भाग लेते हैं। फुटबॉल – रग्बी – कुश्ती में चूँकि सीधे शारीरिक द्वंद्व होता है उसमें कंठीमाला के टूटने का भय होता। कंठीमाला का अपमान नहीं हो इसलिए उसे उतार दिया जाता है। वे बताते है कि पश्चिम के देशों में अधिकांश लोग दूसरे के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करते और जब तक किसी का आचरण अथवा पहनावा आदि समाज को दुष्प्रभावित नहीं करता वे प्रायः उसपर ध्यान नहीं देते।आज इस विषय को सोशल मीडिया महत्त्व दे रहा है तो यह बदले हुए भारत के कारण हो रहा है।

सत्या बताते हैं कि आमतौर पर भारतीयों को अपने ही समाज के लोग ऐसा करने से हतोत्साहित करते थे लेकिन जब से भारत सरकार ने योग और आयुर्वेद को विश्व स्तर पर प्रचारित करना शुरू किया है स्थानीय लोगों की धारणाएं भी बदली हैं और अब वे तिलक -त्रिपुण्ड आदि को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।पहले ऐसा नहीं था। इसको इस तरह से समझें कि सोच के स्तर पर पश्चिम का समाज तीन वर्गों में विभक्त है – पहला वह जो भारतीयों को आज भी हे दृष्टी से देखता है और जिसे भारत में कोई रूचि नहीं है , दूसरा वर्ग वह है जो भारतीयों पर आक्रमण करता है और तीसरा वर्ग वह जो उदार है और भारत को समझना चाहता है।भारत से आये लोगों को यह सुविधा नहीं थी कि वे हिन्दू तीज -त्यौहार को सामूहिक रूप से मनाएं या हिन्दू प्रतीक चिन्हों के साथ कार्यस्थल पर जाकर काम करें।लेकिन उनके बच्चे जो यहाँ जन्मे हैं और जन्म से ही जो यहाँ के नागरिक हो चुके हैं उनमें अपनी संस्कृति और अपने समाज के लिए बराबरी का दर्जा पाने की जिद है , यह परिवर्तन भारतीय मूल के ब्रितानी या अमेरिकी ही ला रहे हैं।

ETON कॉलेज में पढ़ रहे गौतम नित्य सुबह योगाभ्यास और पूजा के बाद रुद्राक्ष की माला पहन तिलक लगाकर अपने वर्ग में जाते हैं। इसबार सभी भारतीय मूल के बच्चों को बुलाकर उन्होने होली मनाई। गौतम ने होली में स्थानीय विद्यार्थियों को भी शामिल होने का निमंत्रण दिया था , उसके कॉलेज में आठ हज़ार बच्चे पढ़ते हैं जिनमें तीन हज़ार ने होली खेली और उत्सव में सहभागिता की। वह बताते हैं कि पश्चिम को भारत की जानकारी कम है और ग्रीक के बारे में वे अधिक जानते हैं।इसलिए उनको अपनी संस्कृति और हमारे धार्मिक चिन्हों के बारे में बताने के लिए मैं ऐसे आयोजन करता रहता हूँ। एक प्रश्न के उत्तर में उसने कहा -‘ हमने थियोलॉजी ( धर्मशास्त्र ) अनिवार्य विषय होने के कारण ८ वर्ष की आयु से क्रिश्चियनिटी को जान रहा हूँ , १८ वर्ष तक मुझे क्रिश्चियनिटी पढ़नी ही होगी। धर्मशास्त्र में हिन्दू भी आता है। हम विद्यार्थियों ने ‘हिंदुत्व अध्ययन सोसाइटी’ बनाई है। अब हमारे समाज और संस्कृति को जानना उनका कर्तव्य है।’

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