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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 4

विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 4 (4-30)

-प्राचीन भारत की सिंचाई व्यवस्था

सिंचाई सूखी जमीन को वर्षाजल के पूरक के तौर पर पानी की आपूर्ति की तकनीक है। इसका मुख्य लक्ष्य कृषि है। भारत के अलग-अलग हिस्सों में सिंचाई की विभिन्न प्रकार की प्रणालियों को इस्तेमाल में लाया जाता है। देश में सिंचाई कुओं, जलाशयों, आप्लावन और बारहमासी नहरों तथा बहु-उद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं के जरिए की जाती है। 

भारत की प्राचीनतम सिंचाई व्यवस्था, इनामगांव (महाराष्ट्र) के पास पायी गयी है। घोड़ नदी के बाढ़ के पानी को इकट्ठा करने के लिए, पत्थर की नींव वाला मिट्टी का एक बड़ा बांध बनाया गया था । संभवतः यह व्यवस्था हड़प्पा की समकालीन है।

वेदों में नदियों व कुओं से, खेत तक नालियां व नहरें बनाने के संदर्भ मिलते हैं। उन शिल्पकारों को ऋभु का नाम दिया गया था ।

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ व मैगस्थनीज की ‘इंडिका’ में ऐसा वर्णन मिलता है कि राजाओं ने बांधों, नहरों व कुंओं का निर्माण किया था। बांधों में आवश्यकतानुसार नियंत्रण के लिये दरवाजे भी थे। किसानों को सिंचाई के पानी हेतु, कर देना पड़ता था।

अमरकोष में दो विभिन्न प्रकार की नहरों का उल्लेख है : खेय खेतों से अतिरिक्त पानी निकालने हेतु तथा बंध्य खेतों में पानी देने हेतु ।

सातवाहन राजाओं ने जंगलों को काटकर, खेती हेतु सिंचाई व्यवस्था वाली भूमि का विकास किया था। पाण्ड्य राजवंश के काल में, चावल की सिंचाई वाली खेती होती थी । चोला राजा करिकल ने अपने राज्य का बाढ़ से बचाव करने के लिए कावेरी नदी पर 160 किलोमीटर लंबा बांध और सिंचाई के लिए कई तालाब बनवाए थे।

विजय नगर के राजाओं ने किसानों को, खेती के लिए। अधिक से अधिक भूमि तैयार करने के लिए प्रेरित किया और लगभग 40 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की सिंचाई हेतु कड़प्पा जिले में अनन्तराज सागर का निर्माण भी किया। उन्होंने मालदेवी नदी पर 10 मीटर चौड़ा व 372 मीटर लंबा बांध भी बनाया ।

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