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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र मे भारत का योगदान:भाग 8

विशेष माहिती श्रृंखला : भाग 8 (8-30)

प्राचीन भारत की खगोलीय प्रगति:

सभी प्राचीन खगोलिकियों की भांति प्राचीन भारतीय खगोलिकी भी टेलीस्कोप की खोज से पहले के काल से संबंधित है। उस समय के प्रायोगिक आंकड़े, लम्बे समय तक किये गये आकाशीय प्रेक्षणों पर आधारित थे। इस खंड में प्राचीन भारतीय साहित्य में उपलब्ध खगोलीय संदर्भों में प्राचीन भारतीय खगोलविदों तथा उनके ग्रंथों का वर्णन है।

इसमें विशाल समय खंडों की गणना, युग, भारतीय संवतों, राशिचक्र, तारों, तारा समूहों, वसंत-विषुव (vernal equinox) तथा उसकी पश्चगामी (refrograde) गति के बारे में प्राचीन भारतीय जानकारी का भी वर्णन है। चंद्रमा की गति पर आधारित हिंदू मास-प्रणाली तथा आधुनिक सौर मास से उसके संबंध की चर्चा भी की गई है।

प्रत्येक 33 महीनों में आने वाला अधिक मास इस खंड का अगला विषय है। अधिक मास सम्मिलित करने के कारण चंद्र-मास तथा मौसम में एकरूपता बनी रहती है। प्रत्येक दिवस की तिथि और नक्षत्र की संकल्पना अद्वितीय है। इससे राशिचक्र में सूर्य और चंद्र की स्थिति, ज्वार भाटा, चंद्रोदय और चंद्रास्त आदि के बारे में जानकारी मिलती है जो आधुनिक ‘तारीख से नहीं मिलती।

विख्यात भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट्ट की पुस्तक ‘आर्यभटीय तथा कुछ अन्य पुस्तकों में उपलब्ध ग्रह- फक्षाओं की जानकारी भी दी गई है। उसके बाद प्राचीन भारतीय खगोलयंत्रों का वर्णन है। अंत में 900-1500 ई. काल के केरल के कुछ महान खगोलशास्त्रियों तथा उनके महत्वपूर्ण योगदान की चर्चा की गई है।

काल-चक्र

हिंदू विचारधारा के अनुसार, काल (काल-कलयति सर्वाणि भूतानि) जो सभी जीवों के अस्तित्व को मिटा देता है, रखिक नहीं बल्कि एक चक्रीय घटना है। समय का चक्र ब्रह्म के एक दिन अर्थात सृष्टि के जीवन काल और ब्रह्मा की एक रात अर्थात पुनुर्पत्ति के काल के बीच घूमता है। इस उत्पत्ति, लय पुनुपति और लय को काल-चक्र के नाम से जाना जाता है।

कलियुग- 4,32,000 वर्ष

द्वापर युग-64,000 वर्ष

त्रेता युग -12.96,000 वर्ष

कृत युग-17.28,000 वर्ष

युग संकल्पना

हिंदू खगोलिकी में युग की संकल्पना, अद्वितीय है। कलि द्वापर, त्रेता व कृत-ये चार मूलभूत युग है। द्वापर, त्रेता व कृत युगों का काल कलियुग के काल से क्रमशः दोगुना, तिगुना व चौगुना है।

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