Opinion

शरीर टूटा पर तिलक की हिम्मत नहीं टूटी

सर वैलेण्टाइन शिरोल द्वारा तिलक को ‘भारतीय अशान्ति के जनक’ की उपाधि देना उस महान् भूमिका का प्रमाण है जो तिलक ने नवीन राष्ट्रवाद के प्रचार करने में अदा की । राजनीति के सम्बन्ध में तिलक ने आदर्शवादी मार्ग नहीं अपनाया।

तिलक अंग्रेजों की कृपा पर जीवित नहीं रहना चाहते थे। उन्होंने आह्वान किया कि भारतीयों को स्वराज्यात करने के लिए त्याग करना होगा, कष्ट सहने होंगे और अपना सर्वस्व योवावर करना होगा। वास्तव में तिलक लोकतान्त्रिक स्वराज्य के प्रवर्तक विचारक थे। वे एक ऐसी शासन व्यवस्था चाहते थे जिसमें सभी अधिकारी और कर्मचारी जनता के प्रति उत्तरदायी हो और अन्तिम सत्ता जनता के हाथ में हो। 1897 में तिलक ने स्वराज्य का नारा लगाया । जब सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया, तो वकील के पूछने पर तिलक ने उत्तर दिया “गुलाम जाति के लिए स्वाधीनता की कामना करना न तो बुरा है और न कोई अपराध ।

”तिलक के प्रयासे से सन् 1906 में कांग्रेस ने स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया। गोखले, मेहता और बनर्जी इसे बदलवाने की कोशिश में थे। तिलक ने इसका घोर विरोध किया। सन् 1907 में तिलक के विरोध के कारण बहुमत के आधार पर उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया। सरकार ने उन्हें 6 वर्ष का कारावास देकर माण्डले जेल में डाल दिया। जेल से हटकर उन्होंने फिर स्वराज्य आन्दोलन प्रारम्भ किया। मृत्यु के समय भी उन्होंने कहा कि यदि स्वराज्य नहीं मिला, तो भारत समृद्ध नहीं हो सकता । स्वराज्य हमारे अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।

तिलक कारावास में अत्यधिक दुर्बल हो गए थे। अपना स्वास्थ्य सुधारने के लिए उन्होंने पहले कुछ दिन ‘सिंहगढ़ सेनीटोरियम’ में बिताए। दिसंबर में मद्रास में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने श्रीलंका का दौरा किया। अपने आंदोलन को जहाँ छोड़ा था, वहीं से उसे फिर शुरू करने और आगे बढ़ाने में अगले दो वर्ष उन्होंने लगाए। उनके बहुत से काम उनके जेल जाने के कारण रुक गए थे। रायगढ़ क़िले में सन् १९०० ई. में एक विशाल ‘शिवाजी महोत्सव’ आयोजित किया गया। शिवाजी की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए एक स्मारक बनाने की दिशा में भी कुछ काम आगे बढ़ा। लेकिन किसी भी अन्य कार्य से अधिक महत्त्वपूर्ण उनका वेदों की प्राचीनता-संबंधी कार्य था।

सन १९१९ ई. में कांग्रेस की अमृतसर बैठक में हिस्सा लेने के लिए स्वदेश लौटने के समय तक तिलक इतने नरम हो गए थे कि उन्होंने ‘मॉन्टेग्यू- चेम्सफ़ोर्ड सुधारों’ के द्वारा स्थापित ‘लेजिस्लेटिव काउंसिल’ (विधायी परिषदों) के चुनाव के बहिष्कार की गाँधी की नीति का विरोध नहीं किया। इसके बजाय तिलक ने क्षेत्रीय सरकारों में कुछ हद तक भारतीयों की भागीदारी की शुरुआत करने वाले सुधारों को लागू करने के लिए प्रतिनिधियों को सलाह दी कि वे उनके ‘प्रत्युत्तरपूर्ण सहयोग’ की नीति का पालन करें। लेकिन नए सुधारों को निर्णायक दिशा देने से पहले ही १ अगस्त, सन् १९२० ई. में बंबई ( अब मुंबई ) में तिलक की मृत्यु हो गई। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए महात्मा गाँधी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता और नेहरू जी ने भारतीय क्रांति के जनक की उपाधि दी।

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